“राजस्व विभाग : जमीन आपकी, खेला हमारा!”
अनूपपुर।
कहते हैं भारत में "जनता जनार्दन" होती है लेकिन राजस्व विभाग में जनता सिर्फ जन है और आरंभ से अंत तक अर्द्ध -मूर्छित रहने वाला प्राणी । यहां जमीन खरीदने का सपना उतना ही सरल है, जितना कि बिना रिश्वत दिए पासपोर्ट बनवाना। सदियों से राजस्व विभाग से आम आदमी का रिश्ता ऐसा चला आ रहा है जैसे शरीर से प्राण का आना-जाना असंभव। यहां खेल ऐसा चलता है कि दादा ने भुगता, पिता ने झेला और अब यह ‘राजस्व खेला’ पीढ़ी दर पीढ़ी एक हवाले की तरह हस्तांतरित होता चला जा रहा है।
जमीन लेने की यात्रा शुरू होती है बड़ी उम्मीदों के साथ-
पटवारी साहब आते हैं, आर.आई. साहब नज़र फेरकर देखते हैं, रजिस्ट्री होती है, पट्टा बनता है, नक्शा तरमीम भी हो जाता है। खरीदार खुश ,सिस्टम काम कर रहा है! लेकिन असली खेल तो सीमांकन में छिपा होता है।
जैसे ही सीमांकन की घड़ी आती है, पटवारी का कम्पास हिल जाता है, आर.आई. की नज़र तिरछी हो जाती है और जमीन 2 फीट दाईं खिसकती है, 4 फीट बाईं सरक जाती है। यह वह कला है जो सिर्फ राजस्व विभाग में मिलती है ,“जमीन को नचाने का हुनर।”
और फिर शुरू होता है असली ड्रामा-
“आपकी जमीन का थोड़ा सा कन्फ्यूजन है… पड़ोस वाले से मिलकर बैठिए… थोड़ा खर्चा लगेगा…”
खरीदार बेचारा समझता है कि शायद मामला हल हो जाएगा। पर उसे क्या पता, ये तो बस प्रीव्यू डॉ था।
वकीलों का अध्याय – यह भी एक खेला,
व्यक्ति न्याय की आशा में वकील के द्वार पर पहुंचता है। वकील साहब बड़े प्रेम से कहते हैं-
“फाइल बनानी है, नकल निकालनी है, गवाही करनी पड़ेगी… थोड़ा खर्च लगेगा।”
और खर्च ? इतना कि आदमी सोचे कि जमीन खरीदी थी या कोर्ट का चंदा जमा किया था।
गवाह - जिन्हें ना जमीन पता, ना जज, पर कोर्ट के चक्कर सबसे ज़्यादा वही लगाते हैं।
गवाह बेचारे का तो कोई लेना-देना भी नहीं होता। बस नाम आ गया, और अब उसे भी तहसील-कलेक्ट्रेट में ऐसे बुलाया जाता है जैसे वह राज्यसभा का सदस्य हो।
बाबू कहता है-
“आज साहब नहीं बैठे हैं, कल आइए… अगली तारीख दे दी है…”
गवाह सोचता है-
“मैं गवाही दे रहा हूं या अपनी हाजिरी लगा रहा हूं?”
बाबू संस्कृति - यहां से शुरू होता है असली ‘खेला’
निर्णय की तारीख आती है। वकील साहब कान में फुसफुसाते हैं—
“फैसला होना है… थोड़ा खर्चा देना होगा।”
अरे भाई! फीस तो पहले ही ले ली थी।
लेकिन यह खर्चा वह “जादुई खर्चा” है जिसकी वजह से साहब की कलम चलती है।
और जादू का असर खत्म हो जाए तो अगली तारीख का नया खर्च शुरू।
अब बड़ा सवाल – गलती आखिर होती कहां है?
पटवारी-आरआई जमीन देखकर, छूकर, सूंघकर, नापकर रजिस्ट्री पास करते हैं।
उनकी मोहर, उनकी सील, उनकी रिपोर्ट… सब सही!
फिर भी बाद में जमीन गलत निकल जाती है।
तो जिम्मेदार कौन?
सिस्टम कहता है—
“खरीदार ही होगा, क्योंकि बाकी सब तो भगवान के भेजे हुए हैं।”
अगर गलती पटवारी, आर आई की होती है, तो उन पर कार्रवाई क्यों नहीं ?
क्योंकि फिर सिस्टम में खेल बंद हो जाएगा।
और भाई, खेल बंद हो गया तो इतने सारे लोग क्या करेंगे?
नकल शाखा से लेकर कोर्ट तक का पूरा इकोसिस्टम इस खेल पर चलता है।
समाधान बड़ा सरल है, पर लागू करना मुश्किल,
सीधा सा नियम बन जाएं -
*पहले सीमांकन, नक्शा तरमीम और उसके बाद ही रजिस्ट्री और पट्टा ,
तो राजस्व के 80% केस खत्म हो जाएं।
लेकिन अगर केस खत्म हो गए तो-
“बाबू साहब की चाय कौन पिलाएगा ?”
फैसले का इंतजार इतना लम्बा क्यों ?
क्योंकि राजस्व का खेला लंबा चलता है।
कभी-कभी तो यह भी समझ नहीं आता—
*फैसला पहले आएगा या
उस व्यक्ति की अगली पीढ़ी बड़े होकर केस समझने लायक होगी ?
राजस्व की दुनिया में यह सवाल ही सबसे बड़ा व्यंग्य है।
और अंत में…
भ्रष्टाचार मुक्त भारत के सपने को सलाम,
लेकिन राजस्व विभाग बड़े आराम से कहता है-
“खेला तो अभी जारी है…”